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गुरुवार, 17 नवंबर 2011

घरेलू माँ

मेरे भी
विशाल होते जाने की
कोई सीमा न होती
अगर मैं वह न होती
जो हूँ...
मेरा यह 'होना' मुझे
उस इंसान से डरा देता है
जिसने अपनी
ज़िंदगी के कमरों से
सारे फर्नीचर
बाहर कर दिए-
टी.वी. स्टैंड से लेकर
डबल बेड तक,
शादी की अल्बम से लेकर
गोद में खेलते बच्चों के
मोज़े तक,
सब बाहर कर दिए....
केवल एक शून्य शेष है,
निरुद्देश्य सपने हैं,
सहमा देने वाली
कल्पनाएँ हैं,
जो उसे
सैकड़ों प्रश्नचिह्नों से
लाद देती है....

जब भी उसकी आँखें
चश्मे में कैद होती हैं,
वे अभिशप्त आँखें
बंद हो जाती है,
कुछ भी देखना नहीं चाहती -
न यह सच कि बच्चे बड़े
हो गए हैं
और न यह झूठ महसूसना चाहती है कि
वह जो भी सोचती है
वह केवल दिलासे हैं...

उसकी आँखें बंद हो जाती है-
डरने से बचने के लिए
या शायद बेपनाह डरने के लिए...
ऐसे में एक आदमी
छूट जाता है
बच्चे छूट जाते हैं-
और वह आगे बढ़ती रहती है
या शायद
बहुत पीछे रह जाती है...
चलती रहती है पीछे की ओर,
उस अतीत की ओर
जहाँ सभ्यता पहुँची नहीं थी,
जिसे उसने सभ्य बनाया....
यह संस्कृति स्वम्भू नहीं है,
इसे संस्कार माँ ने दिया...

लेकिन अब...
न वह पत्नी रही, न माँ रही,
न औरत ही रही,
क्योंकि आर्थिक स्वतंत्रता
घरेलूपन का शोषण
कर रही है...
उसका घरेलू होना
उसकी सज़ा बन गई है...
अब उसके हाथों की बनी सब्ज़ी में
माँ वाली खुशबू नहीं होती...
बच्चे स्वाद भर, मन भर, खा नहीं पाते,
नमक अधिक पड़ने पर
उसे डाँटते हैं, झिड़कते हैं, कोसते हैं,
और उसे माँ नहीं रहने देते...
माँ होने का
उसका आख़री अधिकार भी
छीन लेते हैं...

घरेलू माँ के बच्चे
जब कॉर्पोरेट होने लगते हैं,
तब घरेलूपन तिरस्कृत होता है इसी तरह...
लेकिन सबका दिल
उस दिन दहल उठा
जिस दिन उसने विद्रोह किया...
उसके चुप हो जाने से
सारी ज़िंदगियाँ थम गई,
उसने
घरेलूपन का
बहिष्कार कर दिया...

इसलिए कहती हूँ
उसे कभी ठेस मत पहुँचाना
क्योंकि वह बदल जाती है...
वह माँ, जो सबकुछ कर सकती है,
कुछ नहीं कर पाती...
बड़े-से-बड़े घर का कोई कोना
उसका नहीं रहता...
उसे कभी मारना मत,
वरना वह कहेगी-
"मार डालो मुझे"...
वह कुंठित है,
अपने गले में कहीं
फंदा न लगा ले....
बेहद डरी हुई है वह,
मर जाना चाहेगी,
भूल जाएगी तुम्हें,
तुम कभी उसकी गोद नहीं पाओगे...

उसकी अलमारी सजा दो तुम,
उसके ब्लाउज टांक दो,
उसके महत्त्व के अहसास का
उपहार दो उसे,
वरना सबकुछ छिन जाएगा तुम्हारा...
ऐसा करो,
रोक लो सबको,
उसके मानस को चोट पहुँचाने से,
बचा लो उसे विक्षिप्त होने से,
क्योंकि मैंने देखा है,
भूलते-भूलते एक दिन
वह माँ होना भूल जाती है....

©तनया




सोमवार, 14 नवंबर 2011

मेरा होना

‎मेरा होना जिन्हें 
नागवार गुज़रता है,
उन्हें कह दो कि
मेरा होना रहेगा बाकी- 
तब भी जब
फिज़ाओं में उदासी होगी 
मेरे न होने से,
मेरा होना रहेगा ही उनकी ज़हन में 

©तनया

रविवार, 13 नवंबर 2011

तुम्हारी नज़रों से बचकर भी...

मैं तुम्हें
देख लेना चाहती हूँ
एक बार,
कभी-कभार
सभा में, पंक्ति में,
वहाँ भी जहाँ तुम्हारे सिवा
कोई न हो,

तुम्हारी नज़रों से बचकर भी
मेरी आँखें तुम्हें
देख लेना चाहती है एकबार...

©तनया 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

इतिहास चूक जाएगा ...


तुम जब समाज
बदल रहे होगे मेरे दोस्त,
तब तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी बहन
संभाल रही होगी तुम्हारा घर...
जब तुम अगुवाई
कर रहे होगे क्रांति की,
तब तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी बहन
ख्याल रख रही होगी
तुम्हारी माँ की झुकती कमर का,
पिता के दमे का...
और जब पूंजीवाद तब्दील हो रहा होगा
समाजवाद में
और लोकतंत्र का बिगुल
बजा दिया गया होगा
फिर एक बार
तब भी तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी बहन
जूझ रही होगी
आटे-दाल के भाव से...

तुम फिर एकबार
गलत समझ रहे हो मेरे दोस्त...
अब तुम्हारी पत्नी
अकेलेपन से नहीं घबराती,
नहीं बदलती करवटें-
तुम्हारी बहन भी
अपना साथी चुन चुकी है
तुम्हारे बिना ही...

मुझे चिंता किसी और बात की है-
कि इन सबके बावजूद
उनका होना ज़रूरी नहीं समझा जाएगा,
कि अब भी 
इतिहास में इनका ज़िक्र नहीं होगा,
कि फिर एकबार इन्हें शामिल करने से 
इतिहास  चूक जाएगा। 



©तनया