ज़िन्दगी की फितरत है कि
उलझती जाती है यह...
तह खोलते हैं जब
मुड़े हुए पन्नों के, तो
माज़ी की धूल हटती जाती है...
उंगलियों के बीच से
रेत की तरह
फिसलते हुए वक्त को
जब पकड़े रहना
मुमकिन नहीं लगता
तो हम किताब के पन्ने की तरह
आज का कोई कोना
यूँही मोड़ लेते हैं
कल के लिए...
© तनया