तुम्हारे लिए कुछ लिखने की कोशिश
ब्रह्मांड को शब्दों में समेटने की कोशिश जैसा है।
समझ नहीं आता कि
ऐसा क्या लिखूँ कि यह कहना हो जाए कि
तुम्हारे भीतर अनंत दिखता था बाबा,
तुम्हारे जीवन के छोटे से हिस्से की साक्षी रहकर
हमने जाना कि संघर्ष के कितने चेहरे होते हैं।
जीवन-भर अग्नि परीक्षाओं से गुज़रते रहे तुम,
हाँ, तुम्हारी झुर्रियों और बालों की सफ़ेदी में
उन लपटों के निशान देखे हैं हमने,
तुम्हारे जीवन से हमने जाना कि
ईमान और ज़मीर जैसे शब्द बस किताबी नहीं होते।
क्या लिखूँ कि यह कहना हो जाए कि
हमने तुमसे सीखा कि कैसे
दीप्तिमान होता है चेहरा और व्यक्तित्व,
यहाँ तक कि जीवन भी ,
अगर ज़मीर बेदाग़ हो।
और अगर आत्मा को कोई बात कचोटती न हो,
अगर निष्ठा रही हो जीवन का निचोड़
तो झुर्रियों वाले चेहरे की मुस्कान में
सौम्यता भर जाती है,
पल-पल बीमार होते शरीर से भी ओज दमकता है।
ऐसा क्या लिखूँ बाबा, कि कहना हो जाए कि
तुम्हारी वह कुर्सी, जिसपर बैठकर तुम
टी.वी. देखा करते थे,
वहाँ से अब टी.वी. तक का फासला
बहुत बढ़ गया है,
इतना कि स्क्रीन धुँधली नज़र आती है।
क्या लिखूँ कि यह कहना हो जाए कि
हम जानते हैं कि किस तरह
तुम्हारे जीवन में त्याग और स्नेह
सदा एक-दूजे के पर्याय बने रहे,
कि भीतर कहीं बहुत-बहुत गहराई तक
हमारे अस्तित्व का ज़र्रा- ज़र्रा जानता है कि
तुम्हारे दिए का कोई प्रतिदान नहीं हो सकता।
क्या लिखूँ कि यह कहना हो जाए कि
तुम्हारी एक-एक याद में तुम्हारा स्नेह
आज भी महसूस होता है,
कि तुम चले तो गए हो लेकिन
हमारे आचरण में, व्यवहार में
रह गए हो बहुत-सा।
कैसे यह कहना हो जाए कि
लोगों की बातों में तुम्हारा ज़िक्र
आँखों में आँसू भले ले आए
लेकिन कानों में मिठास भी घोल जाता है।
तुम्हारे शांत व्यक्तित्व की गरिमा
आज भी गौरव है हमारा।
और सुबह-शाम की चाय में
जब ज़िक्र छिड़ता है तुम्हारा,
तो चाय की चुसकियाँ लेते
तुम छविमान हो जाते हो।
© तनया ताशा