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रविवार, 9 सितंबर 2018

अनकहा

मेरी स्मृति में
हल्की-सी
धुँधली-सी
कुछ यादें हैं...
यादें क्या,
यादों का भ्रम है दरअसल...
एक आभास है बस...

याद आता है,
तुम्हारा वह पहला स्पर्श,
अंदाज़ा ही है बस,
जब पहली बार तुमने
छुआ होगा,
तब तुम्हारी खुशी,
धड़कनों का बेतहाशा भागना।
और मैं अवाक!
इस नई दुनिया में,
इस पहली छुअन से
इतना जाना पहचाना-सा अहसास!

हर क्षण
कठोर से कठोरतम
वास्तव की ओर बढ़ते मेरे कदम,
और हर कदम पर
तुम्हारे होने का वह कोमल अहसास,
याद आता है...
उन तस्वीरों में कहीं देखा है मैंने,
तुम्हारी उँगलियों को थामे,
गिरते-पड़ते,
मेरी वह चलने की कोशिश।

हँसी आती है,
जब कल्पना करती हूँ,
बुरी नज़र से बचाने को,
मुझे काले टीके से सजाना तुम्हारा...
अनजानों की भीड़ में
तुम्हारी गोद में
सहमकर सिमटना मेरा...

मैं तुमसे दूर होकर भी,
तुम्हारी डाँट,
तुम्हारे आँचल से सनी
रसोई की गंध,
तुम्हारे अहसास को,
अपने साथ चाहती हूँ...
और जब सोचती हूँ तुम्हें,
तुम्हारी हर एक साँस को
अपने साथ पाती हूँ...

माँ,
मैं कहना चाहती हूँ कुछ ऐसा
जिसे कहना
ज़रूरी नहीं समझा जाता,
जो भीतर कहीं
सालों से अनकहा पड़ा हुआ है...
अपनी आँखें बंद करो
और अपने कान मेरे पास लाओ...
सुनो,
बार-बार सुनो,
मैं तुम्हारी बेटी,
तुमसे प्यार करती हूँ...

©तनया

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