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शनिवार, 1 सितंबर 2018

उपलब्धि

बहुत चाहा 
कि तुम्हारा प्रेम 
मुझे न करे परेशान,
रुलाये नहीं। 
चाहा 
कि दर्द को ज़बाँ  मिले 
इस तरह
कि नासूर बनने से पहले
मरहम बन जाए। 

बहुत चाहा 
कि प्रेम का रंग 
रहे लाल ही,
चाहा 
कि मौसम बदले नहीं,
संतोष हो इतना गहरा
कि कोई उम्मीद जगे नहीं। 

बहुत चाहा 
कि साथ में हो बात ऐसी
कि जुदा न लगे,
चाहा 
कि सपनों में तुम
बेहतर न दिखो
या आँखें खोलूँ 
तो तुम्हें पाऊँ वैसा ही
जैसा बंद आँखों से पाती हूँ। 

बहुत चाहा 
कि प्रेम में 
ईश्वर बस जाए,
प्रेम बन जाए
अवलंब जीवन का,
चाहा 
कि प्रेम ही हो पथ भी, 
पाथेय भी
और लक्ष्य भी। 

इसलिए
उम्मीदों के पर
मैंने काट दिए बार-बार,
फिर भी दर्द की हूक
गहरी होती गई,
पेशानी की शिकन
कम न हुई,
इन्द्रधनुष के सातों रंग
दिखाई पड़ने लगे,
उसमें जुड़ गया
काला भी। 

जितने पास आते गए,
जितना साथ होते गए,
जुदा हुए उतना ही। 
खुली आँखों से तुम्हें
'तुम' ही पाया,
सपनों में तुम
'मैं' हो जाते। 
जीवन के यथार्थ ने
नकार दिया ईश्वर को,
प्रेम की पूजा नहीं हुई मुझसे,
उसपर भी मैंने कटाक्ष किये। 

इसलिए मैंने
रहने दिया
प्रेम को प्रेम ही,
यथार्थ था जीवन का। 
रहने दिया
दो शरीर, दो मन ही,
प्रश्न था वजूद का।  
संतोष भले न मिले पर  
प्राप्ति बन गया प्रेम। 
'तुम' और 'मैं' एक न हुए,
'हम' हो गए। 
सम्मान को जगह मिली इतनी
कि उपलब्धि बन गया प्रेम। 

©तनया ताशा



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