Popular Posts

सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

हरिशंकर परसाई

परसाई जी मेरे प्रिय लेखक हैं। यों तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि जिन्होंने भी परसाई जी को पढ़ा होगा, उनकी ‘प्रिय लेखकों’ की सूची में परसाई जी को स्थान अवश्य प्राप्त हुआ होगा। परसाई जी हिंदी के उन विरल लेखकों में से हैं जिन्होंने व्यंग्य को अपने लेखन और अभिव्यक्ति का आधार बनाया है। उनके लेखन से हास्य की सृष्टि होती है, परंतु यह हँसी ठहाके वाले हँसी नहीं है, बल्कि किसी उचित कटाक्ष पर अधरों के कोनों में स्वतः आने वाली मुसकान है। उन्हें पढ़ते हुए लगता है, जैसे वे हमारे ऊपर हो रहे तमाम अन्यायों पर निरंतर व्यंग्य बाण छोड़ते जा रहे हैं। कभी-कभी ये व्यंग्य बाण हमारे ऊपर भी छोड़े गए प्रतीत होते हैं। उनका व्यंग्य, दर्पण की भाँति हमें हमारी असलियत दिखाने लगता है। अनायास यह अनुभूति होती है कि दूध के धुले और निष्पाप तो हम स्वयं भी नहीं हैं। कलंक के छींटे हम पर भी आ गिरते हैं। कई बार परसाई जी स्वयं पर व्यंग्य करते देखे जा सकते हैं। उनकी निडर और बेबाक लेखन शैली को पढ़ते हुए लगता है कि उन्हें कहीं से अभयदान मिला हुआ है कि वे चाहे प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित व्यक्ति पर, प्रशासन पर, समाज व्यवस्था पर या तथाकथित धर्म के ठेकेदारों पर कटाक्ष करें, उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। अन्यथा इस अदम्य निर्भयता का तो केवल एक ही कारण मुझे समझ में आता है कि उन्हें अपनी बेबाकी के अच्छे-बुरे परिणाम अथवा उनके बाणों से आहत लोगों और व्यवस्था की प्रतिक्रिया से कोई फर्क नहीं पड़ता। वे ‘जनता के निर्भीक लेखक’ हैं। नैतिकता और आदर्शों के तमाम ढकोसलों और मुखौटों को उन्होंने निर्दयता से अपने लेखन में निरावृत्त किया है।

© तनया ताशा