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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

देह ही देश (गरिमा श्रीवास्तव) समीक्षा

पुस्तक की समीक्षा लिखने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है, इसलिए इसे केवल साधारण पाठक की प्रतिक्रिया समझें।

‘देह ही देश’ (डॉ. गरिमा श्रीवास्तव) पढ़ते हुए बार-बार रुकना पड़ा है। कभी गीली हो आयीं आँखें पोंछने के लिए, कभी आँखें मूँद लेने के लिए, कि बर्बरता की जो छवि दृश्य बनकर मन में बस रही है, वह स्थायी न हो जाए। और कभी इस डर से कि अब न रुकी तो बेचैनी में नींद ही न आएगी, या शायद कभी सो ही न पाऊँ। शायद इस तरह की बेचैनी को बनाए रखने के लिए ही ऐसी किताबों का लिखा जाना बेहद ज़रूरी है, आँकड़ों में तब्दील हो गए लोगों की कहानियों का कहा जाना ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है इनका पढ़ा जाना।
यूँ तो शोषण किसी भी रूप में घृणित ही होता है, लेकिन यौन शोषण, संभवतः शोषण का सबसे बर्बर रूप है। लेखिका की यह प्रवास डायरी, 90 के दशक के पूर्वार्द्ध में, पूर्वी यूरोप में युद्ध के दौरान स्त्रियों पर हुए यौन शोषण की वास्तविक छवि से पाठकों का साक्षात्कार कराती है। साथ ही, युद्ध की यातनाओं को अपनी स्मृतियों में आजीवन वहन करने के लिए अभिशप्त स्त्रियों की आपबीती को बेबाकी से बताती है।
“मेरी कोशिश अनकहे सन्नाटों को सुनने की रही है...”(देह ही देश से) लेखिका ने ‘अनकहे सन्नाटों’ को सुना ही नहीं बल्कि यातना भरी चीखों को अभिव्यक्ति दी है। उनका लेखन इतना प्रभावशाली है कि पाठकों को ये चीखें आजीवन सुनाई पड़ती रहेंगी। यह डायरी स्मरण कराती है कि युद्ध का इतिहास केवल हार-जीत का इतिहास नहीं होता, न ही तारीखों का ब्यौरा भर होता है। यह हत्या, बलात्कार और अपहरण का रक्तरंजित, बर्बर और क्रूर इतिहास होता है। यह उनका इतिहास होता है जिनका बचा हुआ जीवन युद्ध का परिणाम बनकर रह जाता है।
यह पुस्तक पढ़ते हुए मुझे कई बार ‘मैं बोरिशाइला’, ‘झूठा-सच’ और ‘तमस’ का स्मरण हो आया था। बांग्लादेश के मुक्ति-युद्ध और भारत-पाक विभाजन की त्रासदी से कितना मिलता-जुलता है पूर्वी-यूरोप के इतिहास का यह शर्मनाक अंश। एक जैसी आपबीतियाँ! सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि युद्ध में ऐसा क्या है जो व्यक्ति को एक कमतर मनुष्य में बदल देता है।
जहाँ तथ्यों के संकलन और विश्लेषण में लेखकीय समर्पण और परिश्रम साफ दिखायी पड़ता है, वहीं लेखिका के बचपन की हल्की झलक, उनकी माँ की स्मृतियाँ, शांतिनिकेतन में बिताए समय का बार-बार उल्लेख, विदेश में मित्रों के संग हँसी-मज़ाक की कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़ने पर विचलित हुए मन को कोमलता का आश्वासन मिलता है। युद्ध पीड़िताओं के शोषण, प्रताड़ना, अपमान और उनके टूटते-बिखरते स्वाभिमान की भयावहता का चित्रण जितना यथार्थ है, उतना ही संवेदनशील भी।
© तनया ताशा

रविवार, 19 दिसंबर 2021

हो सकता है


हो सकता है कभी किसी दिन,
तुम्हें ढूँढती, शहर तुम्हारे आ जाऊँ,
या मैं तुमको 
इक्का-दुक्का कवि-हृदय संग
'मीर' सुनाती मिल जाऊँ।

हो सकता है, कहीं भीड़ में 
मिलकर भी पहचान न पाऊँ,  
या मैं तुम्हारे 
क्लांत हृदय और अवचेतन सेे
पूरी तरह विस्मृत हो जाऊँ। 

हो सकता है, तुम आओ, पर
अपने कदम बढ़ा न पाऊँ, 
या मैं तुम तक
चलते-चलते थक जाऊँ,
एक दिन आवारा कहलाऊँ।

हो सकता है अंत समय तक
मैं तुमको कहीं खोज न पाऊँ,
या मैं तुम्हारे 
बंधन-व्याकुल प्रेमी-मन की 
चिर प्रतीक्षा बन जाऊँ। 

© तनया ताशा



बुधवार, 15 दिसंबर 2021

तुम मेरे न होना


तुम बेशक मेरे न होना,
पर किसी शहर के ज़रूर हो जाना,
हो जाना किसी चाय की टपरी के,
जहाँ अक्सर परिचय 
दोस्ती में बदल जाया करता है। 

तुम मेरे भले न होना,
पर किसी रोज़ सावन के हो जाना,
हो जाना पहली बारिश की सौंधी महक के,
'छपाक' की आवाज़ के,
जो आत्मा में प्रेम-सा उतर आता है। 

तुम मेरे ज़रा भी न होना,
पर किसी के इंतेज़ार के हो जाना,
हो जाना अपनी कही बातों के,
और पहले वादे के,
जहाँ से कोई मन सपना बुनने लगता है। 

तुम मेरे कभी न होना,
किसी के साथ एक मकान के हो जाना,
हो जाना ईंटों के,
उसकी बुनियाद के,
जो फिर किसी का घर बन जाता है। 

तुम अपनी कलाई पर बंधी 
घड़ी के भी न होना,
लेकिन कभी 
किसी और के 
वक्त के पाबंद होकर 
मुक्ति को जान लेना। 

Ⓒतनया 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

तुम दूर से देखो मेरा जीवन


तुम दूर से देखो मेरा जीवन,
कि विश्वास का वह पुल,
ढह चुका है
जो मुझ तक पहुँचता था कभी।  

सालों से मेरे पास जमा पड़े हैं
तमाम लोगों के 
बेशर्म झूठ, 
जिनकी कीमत 
मैंने विश्वास और 
प्रतिबद्धता की क्षमता 
गँवाकर चुकाई है। 

भीतर कहीं पड़ा हो सकता है 
आस्था का कोई अंश,  
हो सकता है कि 
मैं मिल जाऊँ कहीं,
और मेरा सच भी 
पड़ा मिले वहीं। 

सतह पर मगर   
अविश्वास मिलेगा ढेर-सा,
क्योंकि मैंने सालों तक  
तमाम लोगों के 
बेशर्म झूठ जोड़े हैं। 

इसलिए 
तुम दूर से देखो मेरा जीवन। 

© तनया ताशा 





गुज़रते वक्त का असर नज़र पर पड़ता है 
और ज़ख्मों का असर नज़रिये पर।
© तनया


शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

ज़िंदा

ढूँढा जिसको जगह-जगह, पाया उसको कहीं नहीं,
अलबेला वह 'मोह' किसी ख्वाब का बाशिंदा तो नहीं।

झूठ-फरेबी की महफ़िल में, सच्चे दिल का मान नहीं,
बेबाकी पर नाज़ जिसे था, आज वह शर्मिंदा तो नहीं।

जो पहरे लेकर फिरता है, उसका दिल आज़ाद नहीं,
मन-पिंजरे में कैद मगर बेचैन कोई परिंदा तो नहीं।

जो मरा-मरा सा दिखता है, चेहरे पर जिसके नूर नहीं,
समझौतों के बोझ के नीचे, देखो कहीं ज़िंदा तो नहीं।

© तनया

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

प्रेमिका

हर स्त्री में 

प्रेमिका की 

संभावना होती है

लेकिन हर स्त्री 

प्रेमिका कहाँ हो पाती है?

 

जो स्त्री

प्रेमिका होती है,

वह लीक पर नहीं चल पाती,

न किसी साँचे में ढल पाती है।

 

अगर ढल जाती है  

किसी साँचे में कभी, तो

खाना परोसते हुए भी वह

दिनचर्या की नहीं होती,

घर सँवारते हुए भी

रोज़मर्रा की नहीं होती,  

वह तुम्हें सींचती तो है,

लेकिन तुम्हारी नहीं होती। 

 

वह तुम्हारे भीतर छुपे 

उस प्रेमी की होती है,

जिसने कभी झाँककर 

प्रेम का आश्वासन दिया था। 

 

© तनया ताशा

 


शनिवार, 4 दिसंबर 2021

कमी का असर हमेशा एक-सा नहीं होता...
सामान की कमी से ज़िंदगी हल्की होती है,
और लोगों की कमी से भारी।
© तनया


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

कहते हैं


अपने ही घर में भटकने वाले, मुझको बंजारा कहते हैं!
जिन्हें नींद नहीं आती रातों में, वे मुझे आवारा कहते हैं!

औरों के शर्त पे जीने वाले, मुझको बेचारा कहते हैं!
जिनके दिल रोशनदान नहीं, वे मुझे अँधेरा कहते हैं!

© तनया